भरी खुमारी थी
भरे जीस्त में,
ऐसे न
ज़ब्त किया था उसने
आफताब-ए-पैमाने से
रंगत अश्क का
बहा कर पुछो
कितने रंग
दिये थे उसने
जलवा बिखेर कर
किस बात का गुरेज है
अपनी हीं हमसाया से उसे
मुरीद हूँ उसके;
फिर विरानी सी
विरानी क्योँ है
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