अदृश्य, किसी बिच्छेद का
अश्रू प्रागढ लिए
वो चली है
मुझसे दूर
अग्यात
निर्जन वास का
अनन्त परवाज लिए
कह दो
कह दो उससे, कि
अब भाता नहीं
शील पर हवाओं का
थपेर पारना
एक निर्जीव का
शब्दों से अठखेलियां करना
रातों की आहट, और
परछाई का
समीप आना
उसकी आकृती का
सांसों में समा जाना
चली है वो, उद्वेलीत मन का
जग-दीप लिए
No comments:
Post a Comment