हजार टुकरों में
एक बात दबी सी जाती है
सुना है
आईना को सिकन नहीं होती
सिसकियों से भरे चेहरे पर
अब वो बात नहीं ठहरती
जिन बातों से, वह
अपने आप को निहारती थी कभी
जिन फफक्ती आँखों से
कभी दुलार टपकता था
हरेक पल का
मातम लिए ठहरती है अब यहाँ
नौनिहाल को
जिस पल्लू का सहारा था कभी
उसी का कफन पहने
पता नहीं चली है वो कहाँ
हजार टूकरों में ...
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