गुजरे है ज़माने के रश्क यहाँ
किसको क्या समझूँ
एक खता क्या तामीर हुई
दर्द में दर्द का सारमाया समझूँ
लौटेंगे फिर पुरजोर
कहकहे लगाने वाले
लब्जों से और फिर क्या कहुँ
फिका है मैं का मौन भी यहाँ
शहरों की दौड़ती ज़िन्दगी में
एक कसूर ख्वाब का भी है
हजार बास्तियों के टिमटीमाते लौ में
किसको कहाँ खोजूँ
लायेंगे फिर शौक से
जन्मदिन की हजार मोमबत्तियां
किसको क्या परी है
ज़नाजा-ए-ताज को काँधा देने के लिए
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