सब कुछ सिमट सी जाती है
जब उन लम्हों को याद कर
एक द्वन्द सी गुजर जाती है
क्यों कर कुरेदते हैं
पुराने य़ादों के ये सितम
ज़ख्म हरा तलब मारती है
हर बार का वही बहाना
हर बात का वही फसाना
गम भी अपनों को हीं याद करती है
किसने फूर्सत में दिन गुजारें हैं
सब लहू अस्क है यहाँ
अपने भी अपनो का वज़ह ढूँढ़ती है
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