सांसो को रोक कर
इस उदासी को समझने की कोशिश करता हूँ -
नीढाल सा बिस्तर पर
तकिये को सिरहाने मोड़ कर
रूँधी आँखों से
अपने आप को अन्दर ढ़केलता हूँ, कि
कोई गुत्थी सुलझ जाये
अशांत मन और ये बातें
अंभीग्य हूँ , इसकी
चौसर की चाल से
बातें यूँ हीँ दबी सी, कोई दबी है
बताऊँ कैसे
सांसों को रोक कर समझाऊँ कैसे
वर्तमान का बोझ लिए
परवरिस ये, किसका आधार है
यूँ हीँ आना, और यूँ हीँ चले जाना
उम्र भी गरीबी पहचानती है
वरना एक टूस के पत्ते की तरह पनपना , और
आखिरकार छय हो जाना
मिट्टी भी उदासी का मर्म, क्या जानती है!
No comments:
Post a Comment