रात को चलती रेलगाड़ी, और
छन-छन कर आती
रोशनदान से
दीवार पर
उसकी परछाई
कहीं कोई जाता है
नीठोह्
अपनी गन्तव्य की ओर
यात्री के प्रणय प्राण को
विष्मित करता
समय का यह प्रतीबिंब
छुक-छुक करते
कहाँ जाता है, सुदूर
लंबवत
इस लौह-पटरी पर
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