Tuesday, August 15, 2017

तृप्त आत्मा


हर रोज की तरह
यह सोच कर मैं
सब्जी मण्डी गया, कि
आज भी मुझे
तीस रुपये किलो
बासी, कठोर, लम्बी सी
भिन्डी की सब्जी
टोकरीवाली से खरीदनी पड़ेगी
मैंने पुछा:
भिन्डी कैसे किलो दीजियेगा
उसने शांत लहज़े में कहा:
ले लीजिए, बस बीस रुपये किलो है
यह सोच कर की
जरूर कोई न कोई बात है
वरना कौन बीस रुपये में भिन्डी देता है -
वही बासी, कठोर, अधिक लम्बी सी
मन मार कर
अनचाहे मन से मैंने एक भिन्डी को
उसकी टोकरी से निकाला,
परखने के लिए कि
रोज की तरह वह वैसी तो नहीं;
लो यह क्या -
पैसे भी कम और भिन्डी भी ताज़ी ताज़ी सी
छोटी, हरी, लचकदार
एक मुस्कराहट लब पर
आकर बैठ गई -
आज तो मैं घर पर
जी भर के भिन्डी की भुजिया का स्वाद लूंगा
छोटी, पतली रोटी के साथ खाऊंगा
मैंने उस वृद्धा के आन्तरिक मुस्कान को
भाँप लिया था
जिसने इतने कम दाम में
स्वतंत्रता पूर्वक
मेरी आत्मा को तृप्त किया था
जय माँ, जय भारत!

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