Thursday, March 22, 2018

पुरानी बात



कभी पुरानी बातों से
गाँव की चौपाल पर
शुनहरी शाम ढ़लती  थी 
अन्दाज चहकते थे 
राजा रानी के किस्से गढे जाते  थे 
पक्छी कलरव करती घर लौटती थी
बच्चे कोतुहल तकते थे 
दादी अम्मी को बुलाती थी
दादा जमघट लगाये  बैठते थे
बीच se आवाज तुतलाती थी 
फिर  भी  बूढे , बच्चे  थे
मन के सच्चे  थे

अब न जाने ऐसा  कैसे  हुआ
शाम तनहाई सी लगती है
आँखों में पेट्रोल का धुआं  लगता है
चंगादर कफन  ऊडाते  हैं 
maa वहाँ रोती है
दादा निर्जीव सा  टिलीविजन का  कान  ऐंठते हैं
सभी दूबके हुये नज़र आते हैं 
घर फासलों  में घिरा  हुआ
मौत की दुरी नापता है
गुहार  भी शोरगुल  में  बंधी
बित्ते  से खुन के धब्बे  नापती  है 
कभी  पुरानी बातों  से ...

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