कभी पुरानी बातों से
गाँव की चौपाल पर
शुनहरी शाम ढ़लती थी
अन्दाज चहकते थे
राजा रानी के किस्से गढे जाते थे
पक्छी कलरव करती घर लौटती थी
बच्चे कोतुहल तकते थे
दादी अम्मी को बुलाती थी
दादा जमघट लगाये बैठते थे
बीच se आवाज तुतलाती थी
फिर भी बूढे , बच्चे थे
मन के सच्चे थे
अब न जाने ऐसा कैसे हुआ
शाम तनहाई सी लगती है
आँखों में पेट्रोल का धुआं लगता है
चंगादर कफन ऊडाते हैं
maa वहाँ रोती है
दादा निर्जीव सा टिलीविजन का कान ऐंठते हैं
सभी दूबके हुये नज़र आते हैं
घर फासलों में घिरा हुआ
मौत की दुरी नापता है
गुहार भी शोरगुल में बंधी
बित्ते से खुन के धब्बे नापती है
कभी पुरानी बातों से ...
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