Saturday, March 31, 2018

मुवक्किल



ताखे पर रखे
दीया की मद्धम
रोशनी में भी
कभी अपने आप को
देख लिया करते थे
अब तो घर में लगे
हज़ार बेटियों से भी
मन नहीं भरता है
एक फाँक सा कोई उधेड़े है
जिसमे हमशक़्ल  सा दाग
नज़र आता है

कभी चारदीवारी में भी
मिटटी के घर की सोंधी महक
ह्रदय आकाश को चूमती थी
अब तो ताज भी, हम
यादों को दफ़नाने से
दूर रखते हैं

न जाने जिंदगी को
किसकी ऐंठ सी लगी है
अब वापसी में, कब्र
का बहाना
ढूंढते हैं

कभी यूँ ही
जब मन उदास होता है, तो
लहू को पानी की तरह
पी जाते हैं

वही राम, वही रहीम
वही अज़ान, वही एक कीर्तन
मेरे वज़ूद का मुवक्किल है 

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