Thursday, March 22, 2018

ज़िद



एक ज़िद ने
मेरी आवाज को
काफिर बना दिया
वरना हरेक  खुरदरे अहसास पर
मेरी जूबां को  तस्सल्ली
मिलती थी
कि
बेजुबानी की लागत
अपनों से होती है

हरेक लम्हों को पीरो कर
देखा था
कहीं  मिट्टी से
उसकी शुगंध ना चली जाये
कम्बकख्त
हवा ऐसी  चली
कि
शोरगुल हुआ
और शब्द बेमानी हो गई

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