एक ज़िद ने
मेरी आवाज को
काफिर बना दिया
वरना हरेक खुरदरे अहसास पर
मेरी जूबां को तस्सल्ली
मिलती थी
कि
बेजुबानी की लागत
अपनों से होती है
हरेक लम्हों को पीरो कर
देखा था
कहीं मिट्टी से
उसकी शुगंध ना चली जाये
कम्बकख्त
हवा ऐसी चली
कि
शोरगुल हुआ
और शब्द बेमानी हो गई
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