ये आँखें तकती है
अंजुली भर आकाश लिये
न जाने किस काल से
तरसती आ रही
ये आँखें अश्रुधार लिये
एक उच्छास सी बरपाती है
बाँहें फैलाये, अनंत
अवधूत अकाट्य लिये
भेद - अभेद्य का मर्म पालती
जोर करती
अन्धकार लिए
कोमलता शाप है
जहर है
जहां के लिए
कुमूद पंक में खिलती है
गाद में विलीन होने के लिए
ये आँखें
अब भी तरसती हैं
ना जाने किस कछार के लिए
सब वर्ण सूने हैं
असंख्य पतवार लिए
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