टहनियों के रसुक से
दरख्त भी हरे भरे लगते हैं
फिर पतझर का यह कुहापन
जमीं पर क्यों नज़र अाता है
माना की मौसम का मिजाज
शुस्क है बजरने के लिए
फिर ये लमहा क्यूँ है
आफताब लिए हुये
कभी हम भी थे हुनरमन्द
लब्जों का तलब लिए हुये
फिर ये गमजदा क्युँ है
पूरा आसमां लिए हुये
माना की आह की लपट
दिल को आग लगाती है
फिर क्युँ जर्रे जर्रे पर
एबादत का जनून शर्द है
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