Wednesday, October 25, 2017

जनून



टहनियों के रसुक से
दरख्त भी  हरे  भरे लगते  हैं 
फिर  पतझर का यह कुहापन 
जमीं पर क्यों नज़र अाता  है 

माना की मौसम का मिजाज
शुस्क  है बजरने के लिए
फिर  ये  लमहा क्यूँ  है 
आफताब लिए हुये

कभी हम भी थे हुनरमन्द
लब्जों का  तलब लिए  हुये
फिर ये गमजदा क्युँ  है 
पूरा आसमां  लिए  हुये 

माना की आह  की लपट
दिल को आग  लगाती  है
फिर  क्युँ  जर्रे जर्रे पर 
एबादत का  जनून  शर्द है

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