Wednesday, December 6, 2017

गूंज


इस वीराने में
यह कैसी आवाज़ सी गूंज उठी है
साँस थमी सी है, और
नब्ज़ों की दौड़ रुक चली है
कायल हूँ
हुनर पर तेरे, की
कोई बुलाता है जब वहाँ
सच्चाई काँपने लगती है
बंद बंद सी है
अन्धेरे का यह वीरानापन; की
चारदीवारी से अब भी
चिल्लाने की आवाज़ आती है
इस वीराने का
एक तमाशबीन सा हूँ मैं
लहू रंग बदलता है
रात कालिख़ की तरह

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