पिला दो नज़र से
मेरे रक़ीब को
उम्र -ए -ख़िज़्र ; की
मेरे आंखों को
एक पैमाना चाहिए
सहर होने तक
फिक्र मौज -ए -तज़बज़ुब
कौन करता है यहाँ ;
भरी रात में
शहरयार को
रूह चाहिए
सज़दा करने के लिए
कह्लादो राज़दारो से , की
मेरी सहरयारी
पेमूद नहीं है
अब्र -ए -नक़ाब की
हज़ारों मिसल -ए -सूरज
जल उठते है
दिल के तहखाने में
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