Friday, December 30, 2016

रौनक



आंसुओं में यह नमी कैसी
यादों में ढलती जाती है;
और किस बहाने से
खता माफ़ करोगे
क्या कभी मैंने शिकस्त खायी है

ढूंढता हूँ अपने आप को
लबरेज़, तनहा मन से;
क्या इस मज़ारे-हूनर का तकियाकलाम
मेरे आँखों में
तैयार कर रखा है

शिकायतें यूँ भी
बाबस्ता कम नहीं थीं मेरी
बस उनके याद का थोड़ा बहाना था;
कमबख्त अपने आंसुओं से ज्यादा
उनके ख्याल पर रोना आया

अपने आप का दुलारा हूँ मैं
वरना कौन सी जल्दी थी
उस ख्वाब से लिपट जाने की;
गिनतियाँ मैं भी जानता था कभी
हिस्से के दो दो लब्ज़ ओंठों पर चिपकते थे कभी
अब रौनक, मुस्कराहट से ज्यादा आंसुओं में नज़र आती है

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