दुलारे तुम
मौन हो क्यों ,
नन्हे पग मेरे
आस हो तुम
इस अंधियारे में
रौशनी हो ख्वाब के तुम
इस गुमनाम 'मैं' को
तारते क्यों नहीं तुम
निर्मल कर मन
ह्रदय से पुकारते क्यों नहीं तुम
अरमान मेरे
ठुकराए जाते हो
कहीं और, क्या
छलकाते हो अश्रु अपने तुम
इस नाम -ऐ-महफ़िल में
बेनाम जलवा दिखाते हो तुम
बेमानी सी लगती है
जुर्रत तेरे नाम की
पार लगा इस कछार को उस किनार तक
कस्ती क्यों फसी है मझधार में वहां
दुलारे तुम
निर्मल कर;
अपने टोह को
उज्जवल कर
इस बात में रखा क्या है
बात -बात में गवारा न कर
इस उफनती सागर को
शांत कर
पुण्य -पाप की इस धरा को
रौशन कर अपने प्रताप से
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