Wednesday, November 23, 2016

पतझर



जाती  नहीं, बहार
आंसुओं  की
तड़पत  है  लगन  में

इस  वीराने  में
एक  जागीर, निशब्द
इठलाती  है  काँपते हुए

कसूर  इस  दिल  की ;
बैठी  ही
लब्ज़ों  को  सिले हुए

घिर आयें हैं  बादल
एक  लंबी  तान  लिए
उमर घुमर, पतझर में

हज़ार  पैबंद
सांसों  के
ओढती  है  ज़िन्दगी

उड़ा ले  चल  
कहीं
नरमी  भरी अहसास   में

अब   लौ  भी   मद्दिम
हुआ  जाता  है
शामो  शहर  में

एक  कसीस  सी  है;
डालों पर
अब पक्षी चहचहाते  क्यों  नहीं  हैं

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