उन्हीं से जाकर पूछो
कितने रकबे प्यार के, मैंने
सिसकियों तले
लहू की लकीर से बटोरा है
उनके किस नक़्शे ख्वाब में, वल्द
अपने को नहीं पाया है
मांनिंद उनके जरा सी आह से
कभी मरने तक के ख्याल आते थे;
अब तो लगता है, मैं
किसी रह गुजर से इत्फ़ाक रखता हूँ
उनके किस पायल की झंकार से, मैंने
आंसुओं की मोती को नहीं सराहा
अब तो सांसों की आहट तले
जिंदगी भी बेमानी लगती है;
अब तो लाज़ की रवानी से
हया की बू आती है
रोज जमींदोज़ होता हूँ मैं
एक नए पनाहगीर की तरह
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