बाहर की ओज से आल्हादित होकर
बंद आँखे भी अपनी तारतम्यता
विराट की स्वाद लेती है
और स्वाद भी वैसी
जो असुरों को लालायित कर दे
भान उसकी जो भावनाओ से भावविभोर कर दे
न जाने जीवन के इस किनार से उस कछार तक
मुझे और कितनी गहराईयो को छूना होगा
डूबने की किसे परवाह जब किस्ती हीं पतवार हो
धुंध से धुप की तपस कम नहीं होती
प्रेम, श्रद्धा, भक्ति से आत्मा बोझिल नहीं होती
कालातीत है कल्पतरु, करुणा से तो कड़ाहो
नमन उसको जिनकी निमित मात्र हैं हम
नमन उनको जिनकी पहचान हैं हम
नमन आप सभी आत्माओं को जिससे लेखनी लाल हुई
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