Sunday, April 15, 2012

ओज

बाहर की ओज से आल्हादित होकर
बंद आँखे भी अपनी तारतम्यता
विराट की स्वाद लेती है

और स्वाद भी वैसी
जो असुरों को लालायित कर दे
भान उसकी जो भावनाओ से भावविभोर कर दे

न जाने जीवन के इस किनार से उस कछार तक
मुझे और कितनी गहराईयो को छूना होगा
डूबने की किसे परवाह जब किस्ती हीं पतवार हो

धुंध से धुप की तपस कम नहीं होती
प्रेम, श्रद्धा, भक्ति से आत्मा बोझिल नहीं होती
कालातीत है कल्पतरु, करुणा से तो कड़ाहो

नमन उसको जिनकी निमित मात्र हैं हम
नमन उनको जिनकी पहचान हैं हम
नमन आप सभी आत्माओं को जिससे लेखनी लाल हुई

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