Saturday, July 1, 2017

एक स्वांश की ज़िग्र होने तक


एक मूक परे
खूरदरे पत्थर की तालाश में
भटकता रहा मन, की 
समय की मार ने
बनाया होगा बीदेह
किसी नदी किनारे, असहाय
पड़ा होगा
अपनी चोट को निहारते हुये
अंगीनत लहरों की मार को
अपने अन्दर समाये हुये
दाग की गहराई नापते हुये
एक मूक पड़े पत्थर की
नुमाईन्दगी चाहिये
अपने आप को समझने के लिये
वहीं से भार है
वहीं से वार भी
एक स्वांश की ज़िग्र होने तक

No comments: