अकिञ्चित मन को
एक ठोर देता हूँ
अपनी साया को छोड़
किसी मायावी को पकड़ लेता हूँ
अनगिनत रक़्स है
आशय की इस छोर पर
बादल जहां गुमरते हैं
दिल वही छोड़ देता हूँ
अकिञ्चित मन को
एक ठोर देता हूँ
एक फानूस के शाये में
अपने आप को गिरे पाता हूँ
बेज़ार सी लगती है
रंग रोगन की चारदीवारी
चले जाते हैं हम
बुझाने वाले चरागदार के पास
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