Sunday, May 28, 2017

सबूत



इस सुबकते लौ में
आँधी का जनक कौन है
इस दर्दे दिल का
मरह्म कौन है

न दीवार की ओट है
न किसी राख का  सबूत  है
सब जुदा जुदा सा है
लम्हों के इस पण में

जरा सी क्या दिल्लगी कर ली
अपने बेगानेपन से
रौंदते हुए आती है लहर
तेरे बेरुखी की

इस सुबकते हुए लौ में
शेष बत्ती की आस है
कब जलते हुए
माटी रह जाएगी


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