इस सुबकते लौ में
आँधी का जनक कौन है
इस दर्दे दिल का
मरह्म कौन है
न दीवार की ओट है
न किसी राख का सबूत है
सब जुदा जुदा सा है
लम्हों के इस पण में
जरा सी क्या दिल्लगी कर ली
अपने बेगानेपन से
रौंदते हुए आती है लहर
तेरे बेरुखी की
इस सुबकते हुए लौ में
शेष बत्ती की आस है
कब जलते हुए
माटी रह जाएगी
No comments:
Post a Comment