चलते हुए, बाबस्ता
किसी को गैर न कर
कब कहाँ, फलूदे
मेरे इश्क के
तेरे मुँह में
मिठास घोल जायेंगे
मसल मत
इन बहारों को
अपनी खामियों से ;
न जाने कब
पत्थर भी शान से
मस्तक उठा लेते हैं
जिद्दो जहद मत कर
जीवन की इस सफर में;
लम्हे भी करवट बदलती है
वक़्त की फरमाईश पर
अंतिम फूल खिलाती है
यह, तेरी मज़ार पर
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