Tuesday, October 6, 2015

दर्पण

दर्पण के अल्म में 
पाया था तुझको कई बार 
ना जाने कौन सी कसक बाकी थी 
जिसको देखा, नफ़स 
वहाँ से विलीन हो गई 

अब तो परतें भी जमने लगीं हैं 
पत्तें भी झरने लगे हैं;
रौशनी भी काया बन झुरमूठ तले 
आँख मिचौली खेलने लगी है 
फ़क़त, फांस भी एक पहेली सी लगने लगीं है 

माना की बेदाग़ थे हम 
रब के औलाद थे हम:
फकीरी क्यों कर आयी ;
लगी थी जिसको 
उसी की नुमाइस करने लगे हैं हम 

दर्पण भी झूठ बोलते हैं 
एक चेहरा छुपा कर दूसरा उगलते हैं;
अब तो चाहत भी नहीं 
गंजे सिर पर बाल उगाने की 
काया तो काया, दर्पण भी बेरंग होने लगे हैं

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