Monday, March 17, 2014

तमन्ना


मौजए गम से क्या शिकवा
और क्या शिकायत
क्यूँ आँखे सहम सी गयी है
बाहरी आसमां से
अब तो वो बात हीं ना रहीं
जिन बातों से शाम
गुज़र जाया करती थी
चौपाल में बंदोबस्ता
कभी शाम ठहर जाया करती थी
दादा और दादी की कहानी सुन
रूहे तम्मना रोज़ लबरोज़ होती
फिर तो क्या तारें और क्या तररन्नुम
रात में भी शबा ए गुलाब रोशन होती

मौजए गम से क्या शिकवा
और क्या शिकायत
शहर में अब तो खाके बुत भी
हवा नहीं देती
फुरसत में एक गज़ ज़मीं भी नहीं मिलती
रक़ीबों की दुआ अब कब्र पर
दीदार होती नहीं नादाँ
ख़ौफ़ ए जहां फ़लक में
जर्र्रा जर्र्रा झाँकती है तमन्ना यहाँ

मौजए गम से क्या शिकवा
और क्या शिकायत …

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