Sunday, July 28, 2013

एक पल

इसी जिद्ड़ो जहद मे 
रफ़्ता रफ़्ता 
गुजर जाते हैं
ये दिन और रात 

ना जाने 
एक सहमी सी 
आवाज़ वहाँ 
देता है, कौन 

बिताए पल 
की बेवफ़ाई 
लब पर चोट 
करती है 

कौन यहाँ 
जिता है 
मरने तलक 

मौत की खुसबु 
हर घर से 
मसाले रौशन 
नज़र आती है 

आस फिर, दोबारा 
लौटती नहीं 
लमहों के 
इस खेल में 

ख़ाक-ए-बुत के 
गुजर जाने के बाद 
हवाओं के झोंकों से 
मेरा पता पूछते हो!

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