जिसके तसव्वुर में
सर्द है दिन और रात
न जाने क्यों बिलखते हुए
सो जातें हैं आंसुओं के सैलाब
अब तो ना-उम्मीद भरे चेहरे से
वक़्त भी कलकलाता है
सिरहन उसे होती है
फना मैं हो जाता हूँ
बुझा दो ये आशना-ए-चिराग
की जलाती है रौशनी बनकर अँगार
मुफ़लिसी में जीये जाते हैं हम
दर्द का पैबंद लिए
चंद रोज़ और, सनम! चंद ही रोज़
कुछ देर सितम सह लेने दो
ज़ुल्म की छाया में
दम ले लेने दो