Monday, April 25, 2016

ज़िगर



अब और किस टूटे शब्दों से
नहलाओगे मुझे
इस गिरते हुये ज़िगर को

टकराकर पथरों से
नब्ज भी
लहुलूहान हो जाते हैं

अब और किस बिखरे रंग से
लहू को तरपाओगे
फसाले अब कम नहीं होंगे

उनकी आस लगाये
पतीले की आग भी बुझ गयी
वरना, ज़िगर तो ज़िगर था

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