Tuesday, September 1, 2015

इक मय प्याले की


झूमते क्यों नहीं हैं दरख़्त अब,
इस नशीली रातों में ;
कौन सी शिफ़ा से सजा रखा है
मयखाना गुलज़ार होने को , वहाँ !
मादकता क्यों नहीं लेती अंगड़ाई अब,
एक लम्हे को सराबोर करने को,
कौन जुर्रत करता है
चिंगारी में आग लगाने को, वहाँ
फ़ुर्क़त में शमा जलाते हो, और
वफ़ा की बात करते हो;
किस किस धार पर वार फरमाते हो, और
क़यामत में पिने वाले को ढूंढते हो, जनाब!
झूमते क्यों नहीं हैं दरख़्त अब,
लैला - मजनू की कहानी सुनाने को;
फानी है जिंदगी, फना सब रस्क
जुर्रत किसे नहीं एक मय प्याले की

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