Friday, August 2, 2013

रूह की ख़ुदाई

या ग़रिबनवाज़!
या परवर्दीगार!
सुन ले मेरी रज़ा
इस अलगाव की पहेली
को फ़ना कर दे

क्या इस मरहूम
को सज़ा दोगे!
कितनी बार और,
ज़िंदा करोगे
वफ़ा की चाह में

साँस की आस में
लटकती है जिंदगी.
क्या कभी मिन्नते-नादां
को सज़ा दोगे
तेरे साथ चलने की!

वाह रे ख़ुदा,
कैसी  तेरी ख़ुदाई.
नाचती है
लबज़ों पर, हाय
ये तेरी ख़ुदाई! 

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