Friday, September 6, 2019

ज़िद



बड़ी ज़िद थी उनकी बातों में
साँस चलती रही, और
एक बूत को बूतखाना  बना दिया

किस निशा की बात करते हो
गमों का हुजुम है यहाँ
छाया में किसकी निशानी ढूँढ़ते हो

हुनर का सरमाया हूँ
आईना  हूँ  मैं
अपने आप की बददुआई का

बातों से बात बनती  नहीं जहाँ
वहीं  मौन  पड़ा  रहता हूँ मैं
अपने हीँ लहू का पानी हूँ मैं

बड़ी ज़िद थी उनको
मेरी अफसानागोई का
न मैं था, ना मेरा कोई ज़िस्त

बात



उनकी बातों का
अब क्या गिला और क्या शिकवा 
बड़ी तबीयत  से ऊछाला था, मैने 
ये दिल अपना
ना वो मुझे  पकड़  सका
ना दिल में वो जप्त  रही
उन्हे फिर वापस बुलाने का

बड़ी चोटिल  है
शब्दों  का पास रहना
ना सुनाया जा सका
ना समझाया जा सका
एक कूफर् सी जमी है दिल  में,
क्या कहकर 
उसने मुझे काफिर बना दिया

शिकस्ते श्याह

शिकस्ते श्याह में
फना न हो जाये
ज़िन्दगी का उसूल

यह जो इब्तदा है
वो वही है
एक रसुल  के फर्मान का

उदासी



सांसो को रोक कर
इस उदासी को समझने की कोशिश करता हूँ -
नीढाल सा बिस्तर पर
तकिये  को सिरहाने मोड़ कर
रूँधी  आँखों से
अपने आप को अन्दर ढ़केलता  हूँ, कि
कोई गुत्थी सुलझ  जाये

अशांत  मन और ये बातें 
अंभीग्य  हूँ , इसकी
चौसर की चाल से
बातें यूँ  हीँ दबी सी, कोई दबी है
बताऊँ  कैसे
सांसों को रोक कर समझाऊँ कैसे

वर्तमान का बोझ लिए
परवरिस  ये, किसका आधार है
यूँ हीँ आना, और यूँ  हीँ चले जाना
उम्र भी गरीबी  पहचानती है
वरना एक टूस के पत्ते की तरह पनपना , और
आखिरकार छय हो जाना
मिट्टी भी उदासी का मर्म, क्या जानती  है!

दरस दिखला जा



बड़ी प्यास सजी  है
होंठों  पर, हे कांहा
जरा दरस  तो दिखला जा
बांसुरी की मधुर तान से
मन को ह्रदय में बहा  ले जा
नैँना मेरे सावन भादो 
हुआ जाता है

सपनों का असंख्य पंख लिए
फिरता हूँ रात दिन
तेरे  इन्तजार का पहर लिए
अब तो आजा
नटखट सा उपहार  लिए
वंचित हूँ; दिन के ऊजाले में
रात का प्रहार लिए 

आत्म पुष्प




उल्काओं का गिरना
एक प्रतिती रुप लिए
निबद्धता प्रामाणीत करती है -
सजल  टूट पड़ती है
आकाश से जमीं पर

उसकी यह तारतम्यता -
वाक , चक्छू और आत्मा
एक सम्पूर्ण वांगमयता  की
मूल  प्रवाह है
कींचित  भी दोशारूपित  नहीं है

जो विज्ञता है
वही प्राण है -
विरलों की अनुभूती है
सोम है
आत्म पुष्प है

कमल



एक कमल
आधार सा खिलता है
कहीं दूर आसमां में
लेकर अपनी कोमलता
इस दुनिया से परे 
जहाँ वरणों का कोई भेद नहीं
जहाँ काया का समावेश नहीं
शांत सा अखंड ब्रह्मांड लिए
पंखुरियां  फिलाये
आलिंगन सम्पूर्ण लिए

ले चल मुझे
अपने विस्तार में, कि
अब भाता नहीं
शब्दों का
निर्लज अठखेलियां करना
सांसों को भ्रमित करना
वरण कर मेरी प्रार्थना
संबंध प्रगाढ़ लिए
एक कमल आधार  लिए

अंतिम छन का भान



कौन लेता यहाँ सुध बुध, बस
अंतिम छन का भान 
दुख सुख सब छूट गए
लेकर अपनी तान
एक मैं अकेला रह गया
हाड़ मांस का तन
वो भी एक दिन लूट जायेगा
अस्थी कलश के संग 
रह जायेगा बस
अग्नी, पृथ्वी  और आकाश
कौन लेता यहाँ सुध बुध, बस
अंतिम छन का भान

अपूर्ण



उसके आशय का, सम्पूर्ण.
मेरे आशय का, यह दिर्घ सा विस्तार:
जल, पृथ्वी , जमीन आकाश व स्वांश
और अनेक  भाव -
पूर्ण और अपूर्ण

किस पूर्णता का
यह असहज चितकार है
असमन्जश में हूँ, की
वक़्त ने फिर  एक नई चाल चली है -
भर्माया है मुझे

उसके पहलू का, अखंड बोध.
मेरे पहलू का यह निष्ठूर अहसास 
कभी काया का मोह
कभी स्वर्ग का प्रतिहार -
भान सम्पूर्ण का प्रखर अपूर्ण लिए

मेरे शहर में



मेरे शहर के मुंडेर पर
परिन्दों की फर्फराहट
अब नहीं सुनाई  देती है

बीजलियों के तार  जो लटके हैं
लगता है उसी के छुने से
सड़कों पर यह श्याह रंग  ज़मा  है

एक विरानी है
जो  सड़कों  को लपेटे हुये है
जो है वो सब  आह में लीपटी हुई है

मेरे शहर की गली  में
एक मातम सा छाया है
लगता है किसी ने किसी को मात दी है

टिस



बड़ा सहज था
उनका गहरी नींद में सो जाना -
रात ओढ़नी लिए हुये

एक फासला 
जमी हुई परतों का -
सालती रही रात भर

अब गैरों सी क्या कहुं
फफोले दिल के -


रात में ही टिसती क्यों है

आधार



इस जन्म का आधार हूँ -
पारितोशित हूँ
तेरे विधी विधान का
सप्त ऋषियों के तल में 
अथाह सा विस्तार हूँ

इस जन्म का आधार हूँ ...

जीने के मर्म  का
एक नया अंक हूँ
तृप्त अनुभूती का
लिप्त इतिहास हूँ
तेरे पल्लवन  का
एक पल्लवित विस्तार हूँ

इस जन्म का आधार हूँ, मैं

भाव पुंज



भाव पुंज की
सीमा तल
कट छल  -
तत्छण
कौन बुलाता है
भाव विभोर
करने को

भवातित
स्पन्दन प्रवीण  लिए
कौन है, जो
समय रेघ में
एक 'मैं' का
अखिल भान
कराता है

मिलन की
अपूर्व बेला में
आलिंगन का
हर्ष कराता 
कौन है, जो
मैं में "मैं" को
विलीन कराता है

माँ, मैं हीं हूँ ...



सरल, सह्रिदय 
पुण्य आत्मा

वंदनम

आजकल उनका ध्यान
अपने आप में समाया रहता है
पुराने समय की याद ताजा रहती है -
अपनी माँ को खोजती है
ज़िसे गुजरे वर्षों बीत गए (मेरी नानी)

कमज़ोर है
सिर्फ अस्थी है -
मेरी माँ अस्सी साल की वृद्धा है

बचपन टटोलती है -
मुझसे कहती है
गुलाब जामुन, छेना की मीठाई लेते आना, बाबू ;
आज
मेरा मन खाने को कर रहा है

मैं रूँधी आँखों से
झट बाजार जाता हूँ -
उनके लिए मिष्ठान और पेय पदार्थ लेकर आता हूँ
अपने हांथों से माँ को खिलाता हूँ

... बस और नहीं लिखा जा रहा.
मेरा कन्ठ  रूँधा जा रहा है ...

माँ, मैं हीं हूँ
तुम्हारा पुत्र 

चरण वन्दनम्  माँ

चिर जहाँ विस्मित है



मध्य रात्रि
लौह पटरी  पर दौड़ती 
खट-खट  करती
रेलगाड़ी की तीसरे  दर्जा की खिड़की  को
अपनी थरथराती ऊंगलियों से वह 
ऊपर  की तरफ हलके से  ढ़केलता है
और अपलक , निह्शब्द
रूँधी  आँखों से, बाहर
धुंधले दृष्य को समारूपित  करता है
कि कहीं
दूर अंधेरे  में
कोई अपना दिख जाये

न जाने
किस अपनत्व की सीमा को
अपने में संजोये है
हर धरकन  की ओट पर
डबडबाइ आँखों से
रात की गहराई नापता  है
और मन्द मन्द  सा
निर्लीप्त आस  लिए
एक अंजान पहर की
पहचान कराता है
वही है, वही है
चिर जहाँ  विस्मित है

विलोम



अंतिम जोर पर है
सांसों का धीमे-धीमे चलना
न जाने किस कस्ती को
छूपाये  है
इन आंसुओं के मध्य
रहीमन मझधार लिए

अठखेलियों ने
गजब ढारा है
जीवन के इस प्रयाय को
मिथ्या है
मिथ्या है -
अज़ब खेल रचाया है

भाव पूंज की सीमा तल
रुदन अम्बार लगाया है
ले चल कहीं दूर
अपनों का जहाँ निशान ना हो
आशियाना वही
जहाँ अशांती विलोम हो

विरानी



भरी खुमारी  थी
भरे जीस्त में,
ऐसे न
ज़ब्त किया था उसने
आफताब-ए-पैमाने  से

रंगत अश्क का
बहा कर पुछो
कितने रंग
दिये थे  उसने
जलवा बिखेर कर

किस बात का गुरेज है
अपनी हीं हमसाया से उसे
मुरीद हूँ उसके;
फिर विरानी सी
विरानी क्योँ है

वास्ता



असहज है
समय का बेधना;
क्या सहज है, शाख से
पत्तों का गिरना

कई ख्वाइसे खुस्क होकर
पैरों तले रौन्दे जाते हैं
कई नसीब के मारे
बहा लिए जाते हैं

साथ किसका हुआ है 
मंजर-ए-ऐतबार का
एक धुल हीं है, जो अपना वास्ता
हमेशा बुलंद रखता है

छांव



उनकी सागीर्दगी का सबब 
एक बेजुबान दास्तां है
लाख कोशिश टके हैं 
पहजगार के लिए
वर्ना 
हयात-ए-फकीरी का तलबगार
गोया
मैं भी हुं, और तुम भी
यह खुला दिल है
वरक है, सबके छांव के लिए 

_
हयात = Life
वरक = Leaf
पहजगार = Control of senses

गमले का फूल



अर्ध रात्रि -
चांदनी बेला में
कौन झांकता है वहां
छत पर रखे गमले से
गेंदा के फूल सी
एक स्वरणीम् मुस्कान लिए

सुप्त जहां की
जागृत बेला में
कौन लुभाता है
पहर की ठंडी सांस लिए
निश रात्रि का
आकृत आस लिए

शिकस्ते-ख्वाब



बड़े  जुल्म  सहे  हैं
बकदरे  अस्क  ने
फिज़ा  में  शिकस्ते-ख्वाब  का  अब
प्याला  ढूंढते  हैं

ना  शिकवा  ना  शिकायत  रही
हिज्र  में  बाकी  उनसे
अब  उसकी  पैमाइस  का 
आसमां  में  जगह  ढूंढ़ते  हैं 

ना  सोज  ना  तासव्वुर  उनका 
एक  लपट  सी  लीपटी  है  बेगैरत
बुझते  चराग  की  तरह
ज़िन्दगी  का  रुख्सत हो  जाना

.............
पैमाइस = measurement
सोज = burning
तासव्वुर = dream
रुख्सत = take leave

विस्तार



कभी खाली वक़्त
शांत पहर में
एक गुमनाम आवाज
परिचित सा अपरिचित रुप लिए 
इन पुरानी ऊजरते
दिवाल की पपरियों से
अनायास हीं टकराती है, और 
एक विचित्र अनुभूती का
अहसास कराती है, कि
कहीं दूर
कोई बुलाता है
अपने अस्तित्व का
सम्पूर्ण विस्तार लिए






सजीव प्रतिमा का बोध



आखरी सांस, और
धमनियों का बंद होना
एक खुली आवाज का
सांसारिक लोप हो जाना

सजीव प्रतिमा का
आखरी बोध
निर्जन, निर्लीप्त
अगाढ़ शुन्य विलाप

कहीं और
कहीं और उस जहां में
टिस करता प्रतीफल
प्रतिपल

मैं का बोध
ना रहा
यह अंतिम छण
एक अंतिम छंद

कपस कपस सा
अश्रू धार
अलंकृत बोध कराता
जीवन का यह झंकृत ताल 

शुन्य का उपहार लिए
चली है वह 
चली है जहां से कोसो दूर
अपना पुन्य प्रताप लिए

गुलामी



हर गुलामी
वक़्त की एक रोटी का,
कहे  है
यह दुनिया है

कहे है
भुख मिटती नहीं
वरना इस ज़मीं और आसमाँ का
मुँह खुला खुला सा क्यों है

ठहराओ



हजार टुकरों में 
एक बात दबी सी जाती है
सुना है
आईना को सिकन नहीं होती

सिसकियों से भरे चेहरे पर
अब वो बात नहीं ठहरती 
जिन बातों से, वह
अपने आप को निहारती थी कभी

जिन फफक्ती आँखों से
कभी दुलार  टपकता  था
हरेक पल का
मातम लिए ठहरती  है अब यहाँ

नौनिहाल को
जिस पल्लू  का सहारा  था कभी
उसी का कफन पहने 
पता नहीं चली है वो कहाँ

हजार टूकरों में ...

... बाजार रंग लिए



नीरिह प्रवाह सी
गुंजायमान है कोई
लहरों की आखरी हिलोर लिए

व्यकुलता का शब्द से परे 
विलुप्त हो जाना
कौन कौंधता है आश्रित भाव लिए

सरमाया हूँ
किसी गौण  की
टिसती हुई सब्ज का

कौन रहता है यहाँ 
जीवन भर के लिए
आखरी सांस का बाजार रंग लिए

आदि और अन्त



कौन झांकता  है
दिल की गहराई  में यहाँ
आंसुओं के खरीदार  हैं
सब यहाँ

वक़्त  ने क्या बरपाया है
अनन्त सा कहर लिए
आंसुओं के एक ज़ाम  का
हरेक प्यास लिए

जगह जगह की बात है
जगह जगह से रिसती है
दौर, आदि और अन्त का


खेल खेल में रचाया  है उसने

मुहाना



किसी मुहाने  से, बेकल 
किसी आवाज का
कराह  जाना

ठुंड पड़ी दरख्त  में
किसी दर्द  का
यूँ हीं समा  जाना

रूसवाई ज़िन्दगी का
भरे आसमान में 
यूँ हीं आस लगाये परे रहना

उन टटोलती ऊंगलियों का
अदृष्य
कयास लगाना 

बेमानी  सी कोई
बेमानी है, वरना 


सहर ज़िन्दगी का श्याह क्यों है

जग-दीप



अदृश्य, किसी बिच्छेद का
अश्रू  प्रागढ  लिए
वो चली है
मुझसे दूर
अग्यात
निर्जन वास का
अनन्त परवाज लिए

कह दो
कह दो उससे, कि
अब भाता नहीं
शील  पर हवाओं  का
थपेर  पारना 
एक निर्जीव का
शब्दों से अठखेलियां करना

रातों की आहट, और
परछाई का
समीप  आना
उसकी  आकृती का
सांसों  में समा जाना
चली है वो, उद्वेलीत मन का


जग-दीप लिए

आँचल



सुनसान  राहों पर
निश दिन उनकी आने की
एक आहट  सी गुजरती है
मिलन की अप्रतिम, अदृष्य
आस जगाती है

कभी तो आओ 
दुलार हांथों का
उपहार लिए 
सूनी सी सूनी  है
टहनियों पर पत्तों  का
आँचल से विमुख होना

सालती है
तेरी निशान पर
आश्रित, टीमटीमाती
आंशुओं का
अटूट फलक विस्तार -
निश दिन यूँ हीं टपक जाना

अपना मकाम पैदा कर



असद, मैं  को
मैं का फितरत तो दे
तू मेरा नहीं बनता
तो अपना तो बन

ओ अल्लाह के वारिस
नए ज़माने के आँखों में
इस्क-ए-फरिस्ता पैदा कर
आदम में खुदा-बन्दी तो कर

गाफिल न हो खुदी से
तू भी बागबानी कर
हरेक गुल-ए-नाज में
अपना मकाम पैदा कर

तन तो आता जाता है
यह फ़किरी  हर्फ है 
ताज अपने दिल का ओढ़ 
अमीरी का नाज तो दे

बेसुधी



गफलत, इन  बातों का
सिला
अब ना  दे,
बेसुधी  में
हर बात बेगानी सी लगती है

समझदार तब भी थे, और अब भी हैं
फ़कत,
फर्क बस मय का है
जिसने रगो  में
एक ज़ाम सा उडेला है

उनकी नजरों  से मसक्कत,
ऐसी
क्या हुई;
अपनी हिफाजत  के नीगेहबान
अपने आप से हुए हम

काबिल थे
उनकी हर राजदारों में;
उल्फत की पैमाईस जब ना हुई
एक पहरा डाल दिया मैने 
कफ़न सा, अपने ज़नाजे में

अविरल



हरेक वक़्त टिसती है
उनका मेरे ख्यालों  में
हरदम आना

वितृप्त सा है 
रूँधी  कंठ का
बेजूबां  होना

अनेक प्रतिती का
संभार लिए 
आशा का दीप जालता हूँ

कब वो आयेगी 
दुलार का, असीम
प्रकार लिए

क्या बोलूं , कैसे बोलूं
निह्प्राण  सा लगता है
शब्दों का निर्जीव होना

एक आँचल प्यार का, अविरल;
ह्रिदय में बसाती जाना
ए माँ!

रणवीर



स्वर्णिम् भाल प्रसून
धीर धर , और
प्रतन्च चढ़ा
कर अपने आप को
रण वीर प्रिये

शँखनाद के
मूल मंत्र का
ह्रिदय तल सम्मान कर
असंख्य भेद, कुतुहल
वाण प्रवीण लिए

सूर्ख ललाट पर
भ्रिकुटी तान
कर, तम का नाश प्रिये
शार्दुल वक्ष
शूर-वीर हुंकार लिए

प्रबल बोध का
भान करा
मनोरथ निहाल कर
जन्मस्थली के गर्भगृह का
कर, चरणतल सम्मान प्रिये

Wednesday, September 4, 2019

स्वर चित्र



स्वर को चित्रित करती
स्वरणीम् आखेट का
एक पहर

उसके नैसार्गिक प्रवाह का
अभिभूत हूँ मैं
जन्म जन्मानतार का जो अंगीकार कराती

हरेक प्रत्यय का
बोध कराती
लोम-विलोम का पान कराती

स्वर के ह्रिदय तल में
इस कछार से उस किनार तक का
आपरूपी भान कराती

निर्बोध मैं का बोध कराती 
विच्छिप्त आस का परिहास कर
सम्पूर्ण समाहित करती है

स्वर को चित्रित कर
जन्म-जन्मानतर से परे
सम्भ्रम का भेद मिटाकर संजोग वह जूटाती है

ख्वाबों के ख्वाब



ख्वाबों के भी ख्वाब होते
रांगों के भी और रंग होते
दुनियां ऐसी जो  है ऐसी न होती

गुलाबों में कांटे न होते
कमल किचर में पैदा न होता
एक रुप का आकलन  द्ववै नेत्र न होता

गारीबों के तान पर मोती ज़रित वस्त्र होते
अमिरों के पैर फटे होते
महलों  से भी कभी खेतों  की सोंधी शुगंध आती

मंदिर से अजान, और मस्जीद से घन्टी
एक रूपता की मिसाल सूरज और चाँद होता
हर पल पाक, हर वक़्त राम रहीम  होता

अशब्द



उसने अपने आप से
अपनी ही बात कहनी चाही थी, परन्तु
जीवन के झुरमुट में
वो बात
सांसों में उलझकर
कहीं खो गयी 
ना उससे कुछ कहा गया
न ही मैंने कोई ज़ोर ज़बरदस्ती की


अशब्द का सहारा लिए
कई बार अपने आप को समझाने की कोशिश की
कि, क्यूं कभी
मुरझाते वृक्ष 
फलीत होते नहीं
अब तो
शब्द भी खोखले जान पड़ते हैं
मरघट सी एक विचित्र शांति,


जिव्हा में थरथराने लगी है

हौसला



उस अकेले दौर का
एक सीफा सा हूँ
जिसके रगो में
हरियाली अब भी सब्ज है

कौन कहता है
दुआयें कबुल होती नहीं यहाँ
एक हौसला दूर उफ़क तक चाहिए
जहाँ हर सै रोशनज़दा होती है

..................
Meanings:

सीफा  = tree
रगो  = blood veins
सब्ज  = greenery
उफ़क = horizon

दृष्य



कल उनसे जब
मेरे 'मैं' का सामना होगा
न  गुलामी का वो सितम रहेगा
न फिक्रमन्दी का सोटता गम
एक हौसला परोसा जायेगा
जिसके हजार तने होंगे
उन हजार तनों पर
स्वादिष्ट फल मुस्करायेंगे
एक स्वर्णीम् भान का मधुर अहसास लिए
पेड़ों पर फिर से
पत्तों के झूर्मूठ के बीच
चहचहाहट गुंज उठेगी
तन्हाई का नाश होगा
एक नई सुबह का भाल लिए
कोई फिर आयेगा, और मुझे
स्वाणीम् रथ पर सवार करके
ललाट पर आभामंडल का
असंख्य प्रकार लिए
जग का
एक अप्रतिम दृष्य दिखायेगा

लहू अस्क



सब कुछ सिमट सी जाती है
जब उन लम्हों को याद कर
एक द्वन्द सी गुजर जाती है

क्यों कर कुरेदते हैं
पुराने य़ादों के ये सितम
ज़ख्म हरा तलब मारती है

हर बार का वही बहाना
हर बात का वही फसाना 
गम भी अपनों को हीं याद करती है

किसने फूर्सत में दिन गुजारें हैं
सब लहू अस्क है  यहाँ
अपने भी अपनो का वज़ह ढूँढ़ती है

दृश्य-अदृश्य



किसी अदृश्य का दृश्य हूं
पता नहीं कौन है
जिसके स्पर्श का
परिणीत अन्श हूं

पृथ्वी, आकाश, जल और वायु का
एक प्रतिबिंब हूं
इस मूढ़ मैं का
शाष्वत रूप हूं

असंख्य आवाज का
सम्मिलित एक अहसास हूं
शान्त प्रगाढ़ का अवर्णित
सांसारिक विस्तार हूं

लिप्त होती है
आत्मिय भाव का
मैं का 'मै' में विलय होना
ना चाह, न चाहत
दृश्य का सम्पप्रति अदृश्य होना

बोझ



एक अपने का बोझ लिए
कौन किसे बिसराये रे
जीवन की छनभन्गुरता
किस आस लिए तड़पाये रे

एक प्याला जीवन का
किस किस का पान कराये रे
इस बुझती प्यास का
अंत कहाँ से ले जाये रे

निर्बोध इस मोही का
कौन कौन पथ भटकाये रे
एक अपने का बोझ लिए
किस किस को सताये रे

शहर-ए-रानाई



उनकी हर बातों का नजराना
अब मैं क्या पेश करूँ 
मैं खामोश रहता भी हूँ तो
एक आहट सी सुनाई देती है

शमा जलती भी है तो
नूर-ए-आफताब की तरह
दरिचे उम्र में रखा क्या है
जहाँ पूरा आसमाँ खाली है

सजा का हकदार मैं भी हूँ
और तुम भी
शहर-ए-रानाई  मुझ में भी है
और तुझ  मैं भी

रफ्फूदार



कहीं ज़मीं छूटा
कहीं आसमाँ छूटा
कहीं फानी, कहीं पुरसरार देखा
हमने अपने आप को झुका देखा

एक लीबास का यह फर्क देखा
जहाँ देखा रफ्फूदार का वही इल्म देखा
कहीं ज़मीं छूटा
कहीं आसमाँ छूटा

कहीं ज़मीं छूटा
कहीं आसमाँ छूटा
कहीं उम्मीद, कहीं नाउम्मिदी देखी
हमने अपने आप को जा-ब-जा देखा

....................
फानी = mortal
पुरसरार = enigmatic
जा-ब-जा = everywhere

रात की रेलगाड़ी



रात को चलती रेलगाड़ी, और
छन-छन कर आती
रोशनदान से
दीवार  पर
उसकी परछाई
कहीं कोई जाता है
नीठोह्
अपनी गन्तव्य की ओर

यात्री के प्रणय प्राण को
विष्मित करता
समय का यह प्रतीबिंब
छुक-छुक करते
कहाँ जाता है, सुदूर
लंबवत
इस लौह-पटरी पर

लिखावट



मेरी लिखावट 
अब सुन्दर और सुडौल नहीं रही
वो दिन जब
सरकन्डे से बनी लम्बी कलम को
लकड़ी की स्कूली तख्ती पर लेखनी लिखते थे
खूब खेला करते थे
मन लगता था -
गणित क्या, इतिहास क्या
अंग्रेजी और हिन्दी
की भी मान रखा करते थे
अन्त में नीचे बची खाली जगह पर
चित्रकारी भी किया करते थे
और अनचाहे  मन से मिटा भी दिया करते थे
और जब
जिभी और दावात का समय आया 
चमकती नीब को गहरे नीले रंग की सुलेखा स्याही में
खूब डूबो-डूबो लिखते थे
वर्तनी के हर अक्षर को
एक आकृती देते थे
सीधा हो य़ा तिरछा
सिर भी साथ-साथ ड़ूलाते थे
सपने भी कलम के आते थे
साथियों से होड़ लगता था
सुन्दर लिखावट लिखने का
स्याही की शुगंध
पूरे कमरे में तितली की तरह फैलती थी
कि कोई कहानी, या फिर कविता
फूलों के रंग-बिरंगी दुनिया में
बहा ले जाती थी
मन को बाग-बाग कर जाती थी

मेरी लिखावट 
अब सुन्दर और सुडौल नहीं रही...

बे-दाम



किस हिसाब से
उन्होने सिसकियां ली
और फिर
लम्बी सांस लिए
अपने आप को टटोला था

किसकी गिरफ्त में आकर
उन्होने अपने माथे की सिकुड़न को
एक गहराई दी थी
और फिर
अपने आप को बेवजह कोसा था

किस इंतिहान का खामियाजा 
भूगतना पड़ा है
एक वो जो हैं 
शुकुन से पड़े हैं, वरना
बे-दाम वस्त्र को पहनना  मुझे भी आता है

माँ, मैं हीं हूँ ...



सरल, सह्रिदय 
पुण्य आत्मा

वंदनम

आजकल उनका ध्यान
अपने आप में समाया रहता है
पुराने समय की याद ताजा रहती है -
अपनी माँ को खोजती है
ज़िसे गुजरे वर्षों बीत गए (मेरी नानी)

कमज़ोर है
सिर्फ अस्थी है -
मेरी माँ अस्सी साल की वृद्धा है

बचपन टटोलती है -
मुझसे कहती है
गुलाब जामुन, छेना की मीठाई लेते आना, बाबू ;
आज
मेरा मन खाने को कर रहा है

मैं रूँधी आँखों से
झट बाजार जाता हूँ -
उनके लिए मिस्ठान और पेय पदार्थ लेकर आता हूँ
अपने हांथों से माँ को खिलाता हूँ

... बस और नहीं लिखा जा रहा.
मेरा कन्ठ  रूँधा जा रहा है ...

माँ, मैं हीं हूँ
तुम्हारा पुत्र 

चरण वन्दनम्  माँ

ज़माना



गुजरे है ज़माने के रश्क यहाँ
किसको क्या समझूँ
एक खता क्या तामीर हुई
दर्द में दर्द का सारमाया समझूँ

लौटेंगे  फिर पुरजोर
कहकहे लगाने वाले
लब्जों से और फिर क्या कहुँ 
फिका है मैं का मौन भी यहाँ

शहरों की दौड़ती  ज़िन्दगी में
एक कसूर ख्वाब का भी है
हजार बास्तियों के टिमटीमाते लौ  में
किसको कहाँ खोजूँ 

लायेंगे फिर शौक से
जन्मदिन की हजार मोमबत्तियां
किसको क्या परी है
ज़नाजा-ए-ताज को काँधा  देने के लिए

महिमा-गान



खुली खुली सी, थकती 
अर्ध-सुप्त आँखें
भावातित से परे
निह्शब्द 
निर्झर
तकती है
क्षितिज की ओर
विन्यस्त
मूक विन्यास लिए
 
अंतिम क्षण का, सजल
बोध कराती 
चली है 
चली है कहीं दूर
गगन की छाॅव में
एकाग्र
अग्रसित
शुन्य
महिमा-गान लिए

ताल्लुकात



फिज़ा में यह शोर कैसा
एक तुफान सा लगे है
अब तो शान्त रहने पर भी
लोग ऊंगली उठाने लगे हैं

उस आवाज की दस्तक
कहाँ गुम सी हो गई
अब तो बुलाने पर भी लोग
सिरहाने सर छूपाने लगे हैं

इस खुमारी में भी
कहकहे के राजदार और भी हैं
ख्वाइस-ए-बन्दिस भी अब
नागवार गुजरे है

ताल्लुकात का ज़रिया
अब यूँ भी है
मेरे शुकुन में
दर्द का सरमाया क्यूँ है

Monday, August 26, 2019

महिमा-गान

खुली खुली सी, थकती 
अर्ध-सुप्त आँखें
भावातित से परे
निह्शब्द 
निर्झर
तकती है
क्षितिज की ओर
विन्यस्त
मूक विन्यास लिए
 
अंतिम क्षण का, सजल
बोध कराती 
चली है 
चली है कहीं दूर
गगन की छाॅव में
एकाग्र
अग्रसित
शुन्य
महिमा-गान लिए

त्रिपुरारी

हे त्रिपुरारी
हे जग के पालनहार
हर्षित कर
उद्वेलित मन के विकार 
हर्षित कर

शांत पहर का
विराट प्रहरी
पूर्ण कर
आस्था का
सम्यक विस्तार

काल की
वमनस्य बेला में
हरित कर
तपित भूमि का
रुदन विलाप 

विहुल हूँ
अश्रुधार जलप्रपात लिए
अपने दर्शन का
एक आस बंधा
नभ के हर स्पर्श को कुन्दन कर

हे त्रिपुरारी
मन हर्षित कर...

दुशवारी

दुशवारी में
मयस्सर होते नहीं
गम-ए-हस्ती का ईलाज 

मेरे कत्ल के बाद
उसने क्या रंग ज़माया
की जफा से तौबा  

अब और क्या सुनाऊँ
अहल-ए-जहां को किस्से
बस्तियां विरान हो गयी

........
दुशवारी = trouble times
जफा = atrocities
अहल-ए-जहां = people

Tuesday, March 19, 2019

TO BID ADIEU OUR BONDAGE



Not every touch, curves 
into an elixir called life 
Ocean waves, or the rain -
Smirk and smile 

Yet, for the unrooted ones
I find a deeper deluge
Floating like a corpse
Slapping the faces, or something else

Lifeless, a cut.
Music of a benign kind 
Play nature's softest part 
To bid adieu our bondage 

CROWNING GLORY



When you hide me
Behind your 
Cloudy nights
The only wish I availeth 
in your employability
That
To see me, on
my mountaineous furthering
Where I crown my head


with gold

तिमिर विस्तार



निह् स्वरूप सा
तिमिर विस्तार -
क्या गर्भीत है
किसका
असीम चितकार लिए

निह् शब्द सा
असहय  वेदना -
क्या वर्णित है
किसका
अमावास मौन लिए

निह् स्वपन सा
दोष विराजे -
कौन
तकता है
किसका
खुला आसमान लिए

PURR A REASON



Come, come
O my deary feline friend, sit comely
Besides me; and Run not
Like a predator
winning an end 
But
See by your nocturnal eyes
My fault
in your quitness -
How you purr
A reason 
to my demise

HAIL AND STORM


Yesterday it rained
It rained cats and dogs 
Streets were submerged
with plethora of happening -
Creaks and cracks

One event, caught
attention
into my sluggish mind
If it rains
Why pellet it with hail and storm





BEAT



How you cut 
reasons
to my dream
Not once, but
Twice
I winked, standing
at the moment
But 
found
Your ignorance 
Taking a peep out of me -
How not well enough 
I think about your well-being
The more I am pulled out of me
the more I wish
I could be you
Taking every of your beat 
as mine

WEEP THEE NOT ...



Weep thee not
O thou thy kindred heart
Muted
that I see
Weaving pain
Needling
piercing with thorn

Seekers rue not
longer wail in agony, that
All richness pearl
in tears
Gaining
One truth,
All passion expend

What depth l treasure
inside my palpitating heart
Comes rarely
for a peep
But, flow in wamth
over my cheeks -
seeing you drowning in tears

Weep thee not, O kindred soul
Else
I could not hold my tears
taking oceans
into my grip

Weep thee not...

GOLDEN MORNING



What alchemy, holds
on your firm hands
O my granite night
No sooner I wink
from the little corner of my sparkling eyes
It dawn a glittering gold upon me
Peaking your heart
from the mountains tops
into the bowl
of this golden morning 
 

CRATE YOUR WISHES



How quizzically
the morning tea cup
will crate your wishes
That, you
sip, an invisible sip
Holding spoonful of sugar
Far into your distant look

What supplness
the cup will mold itself
to put a pint
into your mouth, that
it had become cold
for how long in eons, that
it was kept on the table

How familiarity, breeds
longer into the past
All present
upturned
Roll into icicles -
Gone by in time
Wedding one strand with the other

JUGAAR



It had kept
a little dent on itself
to ward off its deformity, bodily
Lest 
Someone will take cognizance
of its richness inside that 
Behind all the worldly eyes, was
Jugaar, a quadricycle 
All wooden planks, and 


Old vehicle parts

SPEAK



Speak to me
of nothing
But thy softness 
in an invisible touch

Speak in semaphore

तन्हाई



एक तन्हाई
दबी सी, सहमती
चली जाती है

बैरन 
कोई बैरी  हुआ जाता है
भींच कर
ओंठों  को
सूर्ख लाल किया जाता है

अपने पराये  का
भार
लोप किया जाता है

अदृष्य
कोई अदृष्य हुआ जाता है
रूँधती  कण्ठ  का
अश्रूपुर्ण
हार बना जाता है

ज़ज्ब



बरी सिद्दत से
माकुल, एक
जज्ब ठहरी;
वो मैं ही था
उन अज़ानो में
जहाँ नमाज़ 
अदा हो रही थी

SILENCE ON MY HEAD

Just before 
I was sailing on its surface -
Marching crest and trough
Jovial in all manner

While it shipwrecked

Whole ocean; dropped
Silence
on my head

DEATHLESS



O, time!
By what fleeting hands
you sculpt
the passage of time
intrinsic to my faith
Even if I be hiding from your view
You always find me 
Wherewithal of my beat 
And,
give me a perpetual ride
Deathless in my death



PLANETARY BRUSH



How,
by my fleeting words
you flash, imagery 
owning familiarity
into surrounding air

it looks as if, a painter 
had painted
vast empty spaces, whirling


by these planetary brush 

Saturday, March 16, 2019

COURTYARD



Let you not, wilt
your dreams -
snoring a crisp
Keep it awake
day and night, perennial
That
One day
you will find
the essence wafting a bloom -
taking expanse of your sweet
Smiling wishes
into your heart's courtyard

SILENT RETURN



Doors
creek
by an invisible step -
its coming inside

I am puzzled,
Attaining what silence
it leave
Pawing against the muted door

I throw up my existence, following;
in silent uptake
To return to
Silence, again

FULLER TO MY HEART



There is no, proving
The worth
of thy might
When the standing, is
Sky high
Soaring is no comparison with thee

I must not revel
on thy exuberance
Beaming thy face
But
Take a feast, fuller
To my heart

BEQUEATH



When all was
not it was, but
a past
You only, came
Driving my hearse -
Giving communion
to my spirited whole
Sans any bereavement, that
since uptil was
a flicker of my earthy life
Now, that
I have a truce with my understanding
I have shrugged off
all my reasons
to be with you
Sans any death, sans any act to call my own
But, to
Bequeath my breath onto you -
Time and space

GAZE OF RICHNESS


More than, what
was sculpted
in stone
It kept
a uniform gaze on richness
into the vast expanse -
The treasure,
in all muteness
Expanding, ever expanding

BUZZ ON THE BLOOM


Confessing the self
is so rare these days
Only the gem, shine
in the darkest colliery

One may be
of laziest mind
Only a true seeker
Plough their verdant heart

Feet may blister
Yet the walking is so smooth
Only a true nectarine, invite
The buzz on their bloom

One may be tattered
Wearing torn clothes
Sweetness always
Orb the kind spirit

RIDE YOUR TIME



Ride your time
sledging by
No sooner
I saddle on its back
It rein
out, into my future
Trailing the past
Like a bandwagon -
taking a flimsy grip
on my lost memory

Ride your time
sledging by...

DAWN OF MY BLOOMING HEART



I will sow a seed, furrowing
into my fertile dreams
This of thy land of verdant nights, and
see you sprouting
by the dark wings -
The dawn of my
blooming heart
All petals
Flapping
the dark shadow, oblong
Sans my eyes, other senses attached

UNIVERSAL GROWTH



See,
How in this oceanic wreak -
The earthquake, the sunami, the volcanic eruption -
The killings, the super-ego, the perdition, hawking of the corpses, mauling of the wild, the morality getting beserk;
in an overhaul, could
Rain, sweetness
with an abounding love
from the upper corner of an alien land
And
Maim the outgrowth of this earthy land,
A priory and posteriori
with spatial spectacle of loving peace;
this visible land, and all those infinite spaces
Carpeting our vision of universal growth -
as ever

TOO DEEP



I will ask
Many questions
of my belongingness to you, and
in silence
will
lie my thoughts
too deep for tears

GIVING A BEAT



You will ask me
How I write my pen
Nonplussed, that
it erase all wordings from the mute pages
of my belongingness
Giving leaverage
to my understanding
with quivering lips; that
all truth
is smeared with
The will of my pulsating heart -
Giving a beat into other

WHISPER


Pondering -
I went on treading
my silent feet
along the rustling leaves:
How death
Crisp a whisper
Falling down a tree

THY LOVE



In all vanishing act 
of your imagery
I found you fathomless 
in every meeting of the horizon
Like in every turning wheel
that I find myself rolling down 
I ever find you wrinking at my swollen path
Like all turbidity that falls by the night
I care thy look 
in every rising sun 
In every wakeful silence
you pledge your will, but
In every beat I run my passing time
Say, by what willingness
I turn my tide, that will heave 
An ocean of thy love 






Monday, March 11, 2019

IRIS



Through window 
You beam your happiness
By which black bar I stand, in between;
Like a shadow on a sill 
It shimmer my heart
to no avail
I find mire so deep 
Whenever I blink on you
My pupil opens dark 
into the iris of your eyes



CHILDRENS OF TODAY



Why are the childrens of today so impatient, that I little know.
Why not ask future to dangle it's green leaves, and take the course of bloom and sweetness with flowers and fruits.
Your inertia is not rooted in abatement and waning.
Yours is for dabbibg a brush, and paint the sky with heart and soul.
Yours is for seeing and seeking the love of Godliness, and not to munch murkey thoughts, inside.

Hark! 
Rue not on trivial things, that are all ephemeral and fleeting.
Delve deep inside in submission, obeisances to Divine light burning from time immemorial.
Plunge, make a mark.
Trail your essence in every nook and corner of the skies.
Breath till the end to gain an awe into the eyes of Sun and Moon.


The universe is not only His; it is yours too!

HE WHO WAS MADE LORD



It was inside -
the inner turmoil
That buried me Agong:
"He who was made Lord"
A visceral me 
Until
A Voice 
Trumped up 
And
Lost into vastness 

MORE AND MORE



When the present chirp to nestle a dream 
My heart pummel into future indefinite
And the past lay triumphant 
in glory of the dead 

Not an ounce is wasted 
in space and time
Where heaven opens the door
Beating an earthy remains 

Only to this life
That I have my moments say
But all are ledged 
To offer me more and more 




ZEPHYR



I asked Zephyr
as to how much breath
you hold in the air
Very softly came the reply:
"Every nod that play 
on the flower tip 
Every whisper that croon
mumbling into an orphan ear
Every peak
that refreshen itseself a crown;
Is that not me, that
Turbine a soul
Out of deeper pain

MARRIAGE CEREMONY



Today it rained
First mansoon
dark into the night
Garlanding the earth
Pearl by pearl 
Measuring richness 
by my puffed heart 

My thought pollinated
Each droplets 
with a heavenly bloom 
Every drop scented rose 
Every breeze a garden
And sent an invite to the celestial might
To feast a marriage ceremony 









AN OLD BOOK



How far have I traveled
down the ages
Tucking you 
into the pages of an Old books 
Reading and re-reading
You seem still afresh
into my memory 


Life after life

Thursday, March 7, 2019

SAND DUNES INTO YOUR EYES


You stretch sand dunes 
Graining hot into your eyes
Do you also protrude a hunch 
on your back -
like a camel do
as you paw your feet, soft
in this sizzling Sahara.
How dry is the love
that are cursed by desert 
No new tears welter through my heart,
No new image smudge beauty into the eyes, but
A dry mirage 
Bounding across the horizon


Like a drooping eyebrow.

REAL



Look to my emptiness
wherever I go 
I find you drunk, everywhere

What sipping is this
When denied 
Merges into thy fullness

By holding to my senses
I loosen my grip 
Till you come a saviour

What real
Accure on me 
It vanishes in thy reality

SHADOW



It is so lovingly attached 
with me
Wherever I go in light
it dangle about me 
sometimes brisk, when I take hurried walk
sometimes cozy, sitting beside me
like a domesticated black feline
And
When night falls - around
It sentry darkness
along with my texture and hue 
merging -
all that is
To own.
How only in my death
Could I repent 
What was so dear to me - my soul
My shadow.

BLOOM



Hark, 
there from the crevices of space
flowers are waving their petal hands
Seems
There is a universal crush 
for making the vastness beautiful


and, letting go it's bloom

DIMINISHING THOUGHT



One more diminishing thought, wilted
at the cemetery
of a flower
How once life in hue
have garlanded rainbow to my life
in breath of a petal - blooming.
Now
lay seasoned in demise
Only to accord
A huff 
into the surrounding air

STRUCTURE OF MY BREATH


Ask me not
the structure of my breath
That whiff 
my life, outworldly:
Where in glomerulous look
It cloud my skies
And rain 
Drop by drop


the oozing of my pain

MISSED YOU



One potion of
your elixir, have
transported me 
Invigorously towards your love
What is that, which
Wonton look me here
to my body, that
I have missed you
in the birthing of stars