Wednesday, September 4, 2019

ज़माना



गुजरे है ज़माने के रश्क यहाँ
किसको क्या समझूँ
एक खता क्या तामीर हुई
दर्द में दर्द का सारमाया समझूँ

लौटेंगे  फिर पुरजोर
कहकहे लगाने वाले
लब्जों से और फिर क्या कहुँ 
फिका है मैं का मौन भी यहाँ

शहरों की दौड़ती  ज़िन्दगी में
एक कसूर ख्वाब का भी है
हजार बास्तियों के टिमटीमाते लौ  में
किसको कहाँ खोजूँ 

लायेंगे फिर शौक से
जन्मदिन की हजार मोमबत्तियां
किसको क्या परी है
ज़नाजा-ए-ताज को काँधा  देने के लिए

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