Friday, September 6, 2019

चिर जहाँ विस्मित है



मध्य रात्रि
लौह पटरी  पर दौड़ती 
खट-खट  करती
रेलगाड़ी की तीसरे  दर्जा की खिड़की  को
अपनी थरथराती ऊंगलियों से वह 
ऊपर  की तरफ हलके से  ढ़केलता है
और अपलक , निह्शब्द
रूँधी  आँखों से, बाहर
धुंधले दृष्य को समारूपित  करता है
कि कहीं
दूर अंधेरे  में
कोई अपना दिख जाये

न जाने
किस अपनत्व की सीमा को
अपने में संजोये है
हर धरकन  की ओट पर
डबडबाइ आँखों से
रात की गहराई नापता  है
और मन्द मन्द  सा
निर्लीप्त आस  लिए
एक अंजान पहर की
पहचान कराता है
वही है, वही है
चिर जहाँ  विस्मित है

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