Monday, July 23, 2018

अतृप्त



काटो तो खून नहीं, और
काटो तो नहीं दर्द

यह क्या विरक़्ती है -
जिन्दगी, नाख़ून सी
बढ़ती जाती है

बीमार हूँ -

रक्तहीन सा
कोई बहा ले जाता है  -

अतृप्त
इस जहां से, अब

विछुब्ध हूँ 

कटी पर जब कटती है
बेजान जमीं  पर गिर जाती है

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